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मैं आदमी हूँ

मैं आदमी हूँ, और अक्सर मैं बदनाम ही होता जाता हूँ, हर किसी की खुशी, अपनी कुचलकर हर दिन परोसता जाता हूँ। मेरी चुप्पी में छुपी है टीस, मुस्कान से ढकता जाता हूँ, बस आदर की भूख नहीं मिटती, इसलिये बदनाम हो जाता हूँ। कहीं पिता की रात की लोरी और कहीं पति के प्रेम  सुनाता हूँ, कहीं बेटे का कर्तव्य और कहीं मित्र का भाग निभाता हूँ। मेरे अंतिम श्वास की घड़ी में बस मैं इतना ही कह पाता हूँ, बस आदर की भूख नहीं मिटती, इसलिये बदनाम हो जाता हूँ। कभी दफ्तर के तनाव से तो कभी दुःख से जूझता जाता हूँ, जीवन की आपाधापी में अक्सर पीछे रह जाता हूँ। मेरे जीवन का कोई मोल जो था, उसे गिरवी रखता जाता हूँ, बस आदर की भूख नहीं मिटती, इसलिये बदनाम हो जाता हूँ। औरों की खुशी में अपनी खुशी, बस यही बात दोहराता हूँ, अपना क्या और पराया क्या, सब कुछ ही छोड़ता जाता हूँ। बन इस समाज की धरा की ईंट, एक उज्ज्वल कल को सजाता हूँ, बस आदर की भूख नहीं मिटती, इसलिये बदनाम हो जाता हूँ। कभी सोचता हूँ के मेरे जीवन का सार था ही क्या? एक क्षण सुख की छाँव, और शेष धूप में बिताता हूँ। कोई चला जाता है अनदेखा कर, तो कोई धिक्कार जाता है, बस आदर की भ

तिरस्कार की माला

 प्रत्येक पल में तिरस्कार छिपा है कुछ भाग्यशाली ही इसके भोगी होते है जीवन यातनाओं के माला पिरोता है जो इनके कण्ठ की शोभा बनते हैं मैं भी संभवतः इसी श्रेणी का हूँ और इस जीवन सत्य से परिचित हूँ ये वेदनाओं के आभूषण मेरे लिए बना काल के द्वारपाल मुझे आकर्षित करते हैं बस टकटकी बाँध बैठा हूँ किवाड़ पे सोचता हूँ, जब स्थितियाँ वश में होती हैं उचित समय पर कर सबसे विछोड़ा हम भी तेरे कटरे की ओर चल देते हैं हाँ, ये कटरा इस आयाम से परे है यह बात सोचता हूँ सब को बता चलते हैं के कल, गलती से किसी विचार में जो मैं दिखूँ तो जान लेना, के हम एक भ्रांति बन रह गए हैं

मिट्टी के दीए

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सरजू निराशा के बादलों से घिरा बैठा था। दीवाली की दोपहर हो गयी थी, और अभी भी सरजू के ठेले से सामान ज्यों का त्यों पड़ा हुआ था।  बड़ी आस से उसने इस साल सोचा था के मैं कुछ काम करूँगा, अपने पैरों पर खड़ा होकर दिखाऊंगा अपने माँ बाबा को। पर अब वो किस मूँह से वापिस घर जाता ये सब सामान लेकर? सुना था, दीवाली सबके घर सुख, रोशनी और समृद्धि लेकर आती है, लेकिन इस वर्ष उसके घर में तो बस अंधकार और दुःख छाने वाला था। मंदी के दौर में घर में रोटी के लिए कुछ पैसे भी नहीं बचे थे। सरजू नाकारा था, अपने आप को इस तरह घर पर बैठा देख के बारी उसे खुद से घृणा होने लगती थी। हठ के चलते पहले विद्यालय में कुछ मेहनत न करी, और फिर एक दिन बस घर बैठ गया यह कहकर के अब मेरा मन न लगता। माँ बाप दो जून की रोटी कमाने में इतने व्यस्त थे के उन्हें उसे समझाने का भी वक़्त न था। बस एक बार डाँट कर, एक बार फुसला कर हार मान लिए। और वैसे भी तो छोटी बहनें थी, जिनको पालने से उतरे अभी दिन ही कितने हुए थे - कमसकम वो घर पर उन्हीं का ध्यान रख लेगा। लेकिन मंदी ने उन्हें भी नाकारा बना दिया। अति तो तब हो गयी जब उस दिन घर में आटा भी ख़त्म हो गया। राश

सुखोचक - 3

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"एक बात का ध्यान रखना है सभी को। कोई भी बहु बेटी इन मुसलमानों के हाथ जीवित न लगे। अगर हो सके तो पिता उन्हें स्वयं मार दें, भाई अपने हाथों से उनका गला घोंट दे - हमारी लाज को इस तरह हम कतई न हारेंगे, जीते या मरते। जो बाप या भाई न कर सके, तो बेटियां बहुएं अपने आप किसी कुएं में कूद कर जान दे दें, या चाक़ू से अपने आप को रेत कर या घोंप कर अपनी लाज की रक्षा करें।" सुखमनी रोने लग पड़ी। नौ साल की इस लड़की को मृत्यु से बहुत भय था, पर उस पगली को कौन समझाता के लाज खोने का, नाक काटने से जो मान का नाश होना था, वो उससे भी बढ़कर था? कई महिलाओं ने अपनी सिसकियाँ दबा लीं, कुछ ने कड़वे घूँट पी कर हामी भरी, और सब जत्थे चल पढ़े। ऐसा ही एक जत्था किशोरी लाल और उसके भाई कन्हैया का था, जिनके साथ सरला और सुखमनी और माँ चाची भी थे। मशाल की रौशनी में गति से चलना थोड़ा कठिन था, और वह भी पीछे की ओर से सुखोचक से निकलना था। हिन्दुओं के इलाके का पलायन पता नहीं कैसे थम सकता था, जब तक के वह जम्मू नहीं पहुँचते, चाहे कोई गाँव ही पहुंचे। शायद शिवजी का आशीर्वाद था, के चुपचाप सारे हिन्दू सुखोचक से निकल सके, और कोई हरकत नहीं

सुखोचक - 2

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कन्हैया के भाई किशोरी लाल ने रेडियो चालू किया था, और वहाँ नेहरू का भाषण चल रहा था देश की स्वतंत्रता की बधाई का । तभी, रेडियो पर भाषण पर्यन्त समाचार आने लगा। विभाजन हो गया था पंजाब का। और उसमें कई हिन्दू बहुल क्षेत्र भी पाकिस्तान में चले गए थे। साथ ही साथ, खून की होली शुरू हो गयी थी, और उसमें भी यह सुनने में आ रहा था के कई क्षेत्र जो जम्मू के निकट थे वो पाकिस्तान का भाग घोषित हुए थे। अचानक, चारों ओर से चीखने चिल्लाने के स्वर आने लगे। तकबीर के नारों के बीच मृत्यु तांडव करने लगी। हिन्दुओं और मुसलमानों के गुटों में मार काट आरम्भ हो गयी थी। किसी को भी नहीं पता था के सुखोचक हिंदुस्तान में सम्मिलित हुआ था या पाकिस्तान में, लेकिन मौत के नंगे नाच के समाचार जब लाहौर और अमृसतर से सुनाई दे रहे थे, और जम्मू तक उसके प्रभाव की तरंगें फैल रही थी, तो असंभव था के यहां शान्ति बानी रहती । किशोरी लाल ने और खबरों में सुना कैसे मीरपुर, कोटली और मुज़फ़्फ़राबाद से भी हिन्दू और सिखों को मौत के घात उतारा जा रहा था। शिवाला थोड़ी ही दूरी पर स्थित था, और उसके चारों ओर हिन्दुओं ने एक सुरक्षा रेखा खींच ली थी। मंदिर की सी

सुखोचक - 1

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सरला और उसकी बहन सुखमनी माँ और बापू के साथ शिवाले में छुपे हुए थे । किवाड़ बंद थे और रौशनी का कोई आता पता भी न था, क्योंकि दिए सब बुझे पड़े थे। और भी परिवार थे उनके संग, जो चुपचाप सांसें होंठों में भींच प्रतीक्षा कर रहे थे दंगाई भीड़ के शांत होने का, थम जाने का। सरला १५ की ही हुई थी, और उसकी बुद्धि में यह समझ नहीं आ रहा था के यह सब क्यों हो रहा था । सुना था पाकिस्तान की घोषणा हुई है, उसने परसों ही यह बात बापू से कुछ चिंताजनक स्वर में सुनी थी, मगर कौन ऐसे दृश्य की कल्पना कर सकता था? सुखोचक जम्मू रियासत से मात्रा कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित छोटा सा गाँव नुमा शहर था। हिन्दू मुस्लिम की जनसंख्या बराबर बराबर होने से कभी कभार तनाव तो रहता था, मगर शिवजी की देन से यह शहर छोटा ही सही अति समृद्ध होता था। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही व्यापारिओं ने खूब कमाया था जम्मू की राहगीरी से, और उस पैसे का वर्चस्व जमाने की होड़ लगी रहती थी दोनों ही समुदायों में। जहां हिन्दू मंदिर के शिखर ऊँचे करते, वहीँ मुसलमान मस्जिद की गुम्बदों को और बड़ा बनाने का प्रयास करते। पर पिछले कुछ वर्षों से थोड़ा तनाव भी था, क्योंक

एक और अवसर - एक कहानी

सिंगरौली में गर्मियों का मौसम बहुत ही मुश्किल से बीतता है। श्याम तो खासतौर पर बहुत ही सकट गर्म होती है, मानव की सूरज जाते-जाते अपनी गर्मी रात को उधार दी क्या हो। वैसे ही शहर में पावर प्लांट की कोई कमी तो है नहीं उनकी गर्मी भी शायद इस बेइंतहा गर्मी में कुछ ना कुछ योगदान करती होगी। बहरहाल जिस तरह यह मौसम बीत रहा था, उसमें कुछ नवीनता तो नहीं थी हां इतना जरूर था के लोगों के अंदर बारिश के लिए एक अजीब सा उतावलापन पैदा हो रहा था। हाल ही में नवीन दिल्ली से आया था अपनी पोस्टिंग संभालने के लिए। दिल्ली की गर्मी की तो उसे बहुत जानकारी थी लेकिन उसके ख्यालों में भी उसने ऐसी गर्मी के बारे में सोचा तक ना था। दिनभर पावर प्लांट की झुलसती गर्मी से बेहाल हो कर वह जब शाम को अपने क्वार्टर पहुंचता था तो दरवाजा खोलने पर अंदर से आती गर्म हवा के थपेड़ों से लिपट जाता था। किस मनहूस घड़ी में उसकी तकदीर लिखी गई थी, यही सोच सोच कर घर में ऐसी चलाता और एक घंटा बिना कुछ करे बस वही सोफे पर सो जाता। ना जाने कब रात आ जाती, एक का एक उसकी नींद खुलती, कभी खाना बनाता अपने लिए और और कई बारी भूखे पेट ही सो जाता। हां, लेकिन ए