Lamha
इंतज़ार का तो बस लम्हा भर ही गुज़रा है न जाने क्यों लगता है सदियाँ गुज़र गयी हैं मिटटी के तिनके धीरे धीरे मेज़ पर तशरीफ़ टिका रहे हैं और सूरज की नर्म रौशनी सेंक रहे हैं वो कागजों और किताबों से भरा बुक शेल्फ टकटकी लगाए बैठा है न जाने क्या सोचता है बैठ यूं गुमसुम तन्हाई में बाहर खिड़की के पार दरख्तों में फूलों का इंतज़ार है कोई गुलशन होने का मौसम इन्हें भी नसीब करा दे यूं मुरझाये से पड़े हैं वो इंतज़ार में बैठ खामोश देखता हूँ सरसराते पत्तों को हवा के तेज़ झोंके से लहरा उठे जो हौले से, दबे पाँव आ खड़ी मेरे पास वो कह गयी न जाने क्या, समझ न आया मुझको लम्हा भर गुज़र गया यूं ही, देखता रहा मैं खिड़की की ओर राह देखता रहा आने वाले लम्हे की पर न आने की आहात उसकी, न करता वो शोर